तीन दशक की जद्दोजहद का अंत : बुज़ुर्ग सुदामा को आखिर मिला मेहनत का हक

जिलाधिकारी की सक्रियता से 29 साल बाद खाते में पहुँचे तीन लाख सात हजार रुपये

कानपुर।
फरवरी की एक सुबह, जिलाधिकारी कार्यालय में जनता दर्शन चल रहा था। सैकड़ों लोगों की भीड़ में एक बुज़ुर्ग खामोशी से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। साधारण पैंट-शर्ट, हाथ में पुरानी सी फाइल और थैला… झुर्रियों से भरा चेहरा, लेकिन आंखों में उम्मीद की चमक। यह थे 89 वर्षीय सुदामा प्रसाद, जो पिछले 29 सालों से अपनी मेहनत की कमाई पाने के लिए दर-दर भटक रहे थे।
सुदामा प्रसाद संग्रह सेवक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। साल 1996 में उन्हें उनकी सामान्य भविष्य निधि (जीपीएफ) की राशि मिलनी थी, मगर फाइलों के ढेर और दफ्तरों के चक्कर में उनकी गाढ़ी कमाई फंसकर रह गई। अधिकारी बदलते गए, नियमों की किताबें पलटती रहीं, पर रकम उनके खाते तक नहीं पहुँच सकी।

किसी और की तरह वह अदालत नहीं भागे। उन्होंने प्रशासन पर भरोसा बनाए रखा और उम्मीद नहीं छोड़ी। आखिर जनता दर्शन में अपनी व्यथा सुनाकर उन्होंने जिलाधिकारी जितेंद्र प्रताप सिंह से न्याय की गुहार लगाई।

डीएम ने तुरंत फाइलें मंगवाईं और मामले को गंभीरता से लिया। बांदा से अभिलेख बुलाए गए, कोषाधिकारी और उपजिलाधिकारी ने जांच की और पाया कि पूरे ₹3,07,000 ब्याज सहित उन्हें मिलने चाहिए। आदेश जारी हुआ और आखिरकार यह राशि उनके खाते में पहुंची।

रकम हाथ में आने पर 89 साल के सुदामा की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। लगभग तीन दशक से थमा हुआ सफर यहीं आकर खत्म हुआ।

यह कहानी सिर्फ एक बुज़ुर्ग की जद्दोजहद नहीं, बल्कि इस बात की गवाही है कि अगर व्यवस्था में संवेदनशीलता और इच्छाशक्ति हो तो न्याय देर से सही, पर मिलता ज़रूर है।

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